It has been observed time and again that various fake news are circulated through social media channels such as youtube, whatsapp, facebooketc which has a wide reach among masses. These fake news are baseless and doesn't have any scientific facts related to them and due to its presentation, they create a situation of panic among citizens. With all the false and misleading information propagated through these mediums, FSSAI in consultation with the subject experts shares clarification on these fake news. FSSAI also urge citizens to neither believe nor circulate these fake news through their social media channel
खाद्य संरक्षा सम्बन्धी मिथकों पर स्पष्टीकरण
यह देखा गया है कि विभिन्नमिथ्या समाचारों को सोशल मीडिया चैनलों जैसे कि यूट्यूबए व्हाट्सएपए फेसबुक आदि के माध्यम से प्रसारित किया जाता हैए जिसकी व्यापक पहुंच जनता के बीच होती है। ये फर्जी खबरें निराधार हैं और इनसे संबंधित कोई भी वैज्ञानिक तथ्य नहीं है और इसकी प्रस्तुति के कारणए वे नागरिकों में घबराहट की स्थिति पैदा करते हैं। इन माध्यमों के माध्यम से प्रचारित सभी गलत और भ्रामक जानकारी के प्रसार को देखते हुए FSSAI विषय विशेषज्ञों के परामर्श सेखबर पर स्पष्टीकरण साझा करता है। FSSAI नागरिकों से इन फर्जी खबरों पर विश्वास नकरने और उन्हें अपने सोशल मीडिया चैनल के माध्यम से प्रसारित नकरने का आग्रह करता है
- There is no technology or chemicals available to complete the manufacturing of whole eggs. Also, it is not economically viable process since normal eggs are available in abundance & at an affordable price.
- A thick eggshell membrane indicates the freshness of the eggs. When the egg is fresh, there is not enough time for evaporation to separate the 2 membranes (outer and inner layers) causing it to stick to each other. This makes it look thicker and stronger when it is peeled. Also, the inner shell membrane of the eggs may become harder & elastic when it is older than 15 days, which is a natural ageing process.
- The reason why eggs differ from each other is because of difference in quality of feed, breed of bird, ageing of eggs & the handling of eggs.
- As the egg ages, the egg white changes its consistency, becomes thin and runny and finally egg yolk and white dissolve into each other & this mixing is aggravated by temperature abuse & not because egg is made artificially.
प्लास्टिक के अंडे होने विषयक स्पष्टीकरण
- ऐसी कोई तकनीक या रसायन विद्यमान नहीं है जिससे अंडे का कृतिम रूप से निर्माण किया जा सके। साथ ही यह आर्थिक रूप से भी व्यहार्य प्रक्रिया नहीं है क्यों की कि सामान्य अंडे बहुतायत में और सस्तीदरों पर उपलब्ध हैं।
- अंडे के छिलके की मोटी बाहरी झिल्ली ताजगी को इंगित करती है। जब अंडा ताजा होता है तो वाष्पीकरण द्वारा दोनो झिल्ली (बाहरी एवं भीतरी परत) को अलग-अलग करने के लिए पर्याप्त समय नही होता हैं, जिससे ये एक दूसरे से चिपक जाती हैं। इसी कारण इसे छीलने पर यह मोटी और मजबूत होती है। इसके अलावा अंडों की आन्तरिक झिल्ली 15 दिनांक से अधिक पुरानी होने पर कठोर और लोचदा हो सकती है, जोकि एक स्वभाविक प्रक्रिया है।
- अंडो का एक-दूसरे से भिन्नता का कारण भोजन की गुणवत्ता में अन्तर, नस्ल, अंडो का पुराना होना या देखभाल में भिन्नता के कारण है।
- जैसे-जैसे अंडा पुराना होता है, अंडे की सफेदी की प्रकृति में बदलाव होता है और यह पतली और बहने वाली होने लगती है और अंत में अंडे की सफेदी और जर्दी एक दूसरे में घुल जाती है, यह मिश्रण तापमान की देखभाल न होने के कारण ज्यादा तेजी से बदलता है न कि इस कारण कि अंडे को कृतिम रूप से बनाया गया है।
Detailed information on egg quality and safety is available at
Video regarding plastic eggs
- Ferrocyanides are approved anti-caking agents for common salt including edible common salt, Iron fortified salt and Iodized salt as per FSSAI Regulations. In India it is allowed at level of 10 mg / kg compared to EU regulations where it is allowed 20 mg / Kg of salt.
- With regards to the apt level of exposure of cyanide from such of the above substances, recently one of the highly respected bodies in world of Science, the European Food Safety Authority (EFSA) has opined that acceptable daily intake of sodium/potassium/calcium ferrocyanides is 0.03 mg per Kg body weight per day expressed as ferrocyanide ion.
नमक में फैरोसायनाइड के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण
- भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण के विनियमों के अनुसार फैरोसायनाइनड्स को सामन्य खाद्य नमक, आयरन फोर्टीफाइड नमक एवं आयोडाइज्ड नमक के लिए एंटी-केकिंग एजेन्ट के रूप में अनुमोदित किया गया है। भारत में यूरोपीय संघ के नियमों की तुलना में जहाॅं यह 20 मि0ग्रा0/कि.ग्रा0 के स्तर पर अनुमन्य है, की तुलना में इसे 10 मि0ग्रा0/किग्रा0 के स्तर पर अनुमतिदी जाती है।
- उपरोक्त पदार्थों में से सायनाइड के के सम्पर्क के उपयुक्त स्तर के सम्बन्ध में हाल ही में विज्ञान की दुनिया के अत्यधिक सम्मानित निकायों में से एक, यूरोपीय खाद्य सुरक्षा प्राधिकरण (EFSA) ने यह स्वीकार किया है कि सोडियम/पोटेशियम/कैल्शियम फैरोयानाइड के दैनिक स्वीकार्य सेवन फैरोसायनाइड के आयन के रूप में प्रतिदिन 0.03 मि0ग्रा0 प्रतिकिलोग्राम शरीर के वनज को उल्लिखित किया गया है।
Detailed information on Ferrocyanides in Salt can be found at here
- Melamine has no known food uses. Melamine could be present in a food either on account of its incidental presence (as a contaminant) or due to deliberate addition (as an adulterant) for economic gains.
- It must be noted that use of melamine either as an ingredient or as an additive is not permitted in any food by FSSAI, although maximum limits for presence of melamine in food, including milk, have been prescribed to address the incidental presence of melamine as a contaminant. This is as per international standards and is based on a proper risk assessment with respect to consumer health safety. Setting up of such limits certainly does not mean that FSSAI allow addition of melamine to foods even within the specified maximum limit.
नमक में फैरोसायनाइड के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण
- मैलामाइन के कोई ज्ञात खाद्य उपयोग नही हैं। खाद्य पदार्थ में मैलामाइन आकस्मिक उपस्थिति (एक प्रदूषक के रूप में) या जानबूझ आर्थिक लाभ के लिए की गयी मिलावट (एक मिलावटी पदार्थ के रूप में) के रूप में।
- यह ज्ञात होना चाहिए कि भारतीय खाद्य संरक्षा एव मानक प्राधिकरण द्वारा मैलामाइन का खाद्य पदार्थ के एक घटक के रूप में अथवा मिलाये जाने वाले पदार्थ के रूप में अनुमति नही दी गयी है। हालांकि मैलामाइन की आकस्मिक उपस्थिति को संबोधित करने के लिए दूध सहित खाद्य पदार्थों में मैलामाइन की उपस्थिति की अधिकतम सीमा निर्धारित की गयी है। यह अन्तर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप है तथा उपभोक्ता स्वास्थ्य संरक्षा के संबंध में समुचित जोखिम मूल्यांकन पर आधारित है। ऐसी सीमाओं के निर्धारण का तात्पर्य यह नही है कि भारतीय खाद्य संरक्षा एवं मानक प्राधिकरण खाद्य पदार्थों में अधिकतम सीमा के भीतर भी मैलामाइन के मिलायेजाने की अनुमति प्रदान करता है।
Detailed information on presence of melamine in milk is available at
Video regarding Melamin in Milk
- The snacks such as namkeens and potato chips are mainly made of cereals, spices and oil and the carbohydrate and fat have a natural characteristic of burning when exposed to fire. Thus, it should be ruled out that they contain plastic
स्नैक्स में प्लास्टिक मिला होने के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण
- नमकीन और आलू के चिप्स जैसे नमकीन मुख्य रूप से अनाज, मसाले और तेल से बने होते हैं और वसा में आग लगने पर जलने की प्राकृतिक विशेषता होती है। आग लगने के आधार पर प्लास्टिक मिला होना मानना निराधार है।
Video Regarding Plastic in Snacks
- Wheat flour naturally contains 2 proteins – Glutenin - for elasticity & Gliadin- for raising of dough. In the presence of water, these 2 proteins bond together to create an elastic network of protein called gluten strings. Gluten is the rubbery mass that is left when wheat flour dough is washed with water & this is maliciously referred to as plastic.
आटे में प्लास्टिक होने के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण
- गेहूँ के आटें में दोप्रोटीन पाये जाते हैं – ग्लूटेनिन - लोच के लिए एवं ग्लियेडिन - आटे में गूंथने के गुण के लिए। पानी की उपस्थिति में ये दोप्रोटीन सम्बद्ध होकर एक लचीली संरचना बनाते है जिसे ग्लूटेन स्ट्रिंग कहा जाता है। आटे को पानी से धोने पर यही ग्लूटेन बच जाता है जिससे दुर्भावनापूर्व कप्लाटिक कहा जाताहै।
Video Regarding Plastic in Wheat Flour
- It is the natural phenomenon of rice to burn since it is a complex carbohydrate and since rice is 80% starch, it has cohesive and adhesive properties and when the rice is cooked and transformed into ball, the air gets entrapped & becomes bouncy like a ball. Thus, it should be ruled out that the rice contain plastic
बाजार में प्लास्टिक के चावल की उपलब्धता विषयक स्पष्टीकरण
- चावल का जलना एक स्वभाविक प्रक्रिया है क्यों कि चावल एक जटिल कार्बोहाइड्रेट होता है और इसमें 80 प्रतिशत स्टार्च की मात्रा होती है। इस कारण चावल में चिपकने एवं जुड़ने वाले गुण होते हैं और चावल जब पकाया जाता है और एक गेंद के रूप मे बदला जाता है तो इस में हवा फंस जाती है और इसमे कूदने गेंद के समान उछलने का गुण आ जाता है। उक्त के आधार पर चावल में प्लास्टिक होने को खारित किया जाना चाहिये।
Video regarding Plastic Rice